कुछ भी कभी ख़त्म नहीं होता,पूरी तरह से...
बस हम पार करते जाते हैं एक एक करके उनको ..
वो तो शायद वहीँ पड़े रहते है,वक़्त की तरह !
पलट के देखो,धुंधली सी झलक आज भी दिख जाएगी ..
पर कुछ ऐसा भी होता है जिसके गुजरने का सिर्फ धोका होता है ..
वाकई मैं तो वो हमारी ही ज़िस्त की किसी तह से चिपका हुआ है..
मुफ्त खुर सा ........
ऐसा जो नमक से मरता भी नहीं..
जो रह रह के टीसता रहता है,कचोटता रहता है...
तब खुजली सी होती है ज़हन पे और..
..ख़राशों के निशाँ से रह जाते हैं बस...
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