सुबह-शाम तो जैसे पलक झपकने के साथ फिसल से जाते हैं...
पर..वक़्त जैसे चिपक सा गया है,आगे बढ़ता ही नहीं !
ज़हन पर पर्त-दर-पर्त,दिन-पहर-पल..जैसे चदते से जा रहे हैं...
...
...
और मैं ,
...
...
मैं यहाँ अपनी ऊँगली मैं पढ़े छल्ले को घुमाते हुए ,
पल-पल मुझ तक बढ़ते 'मेरे सूरज' की तपिश को बस महसूस करने की कोशिश कर रही हूँ.
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